हम रहे पर नहीं रहे आबाद - जॉन एलिया



हम रहे पर नहीं रहे आबाद
याद के घर नहीं रहे आबाद

कितनी आँखें हुईं हलाक-ए-नज़र
कितने मंज़र नहीं रहे आबाद

हम कि ऐ दिल-सुख़न थे सर-ता-पा
हम लबों पर नहीं रहे आबाद

शहर-ए-दिल में अजब मोहल्ले थे
उन में अक्सर नहीं रहे आबाद

जाने क्या वाक़िआ' हुआ क्यूँ लोग
अपने अंदर नहीं रहे आबाद

जॉन एलिया

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