आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक - मिर्ज़ा ग़ालिब
आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ के सर[1] होने तक
दाम हर मौज में है हल्का-ए-सदकामे-नहंग
देखें क्या गुज़रती है क़तरे पे गुहर होने तक
आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूं खून-ए-जिगर होने तक
हमने माना कि तगाफ़ुल[2] न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुमको ख़बर होने तक
परतवे-खुर[3] से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक
यक-नज़र बेश नहीं, फ़ुर्सते-हस्ती गाफ़िल
गर्मी-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर[4] होने तक
गम-ए-हस्ती[5] का "असद" कैसे हो जुज-मर्ग-इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक
मिर्ज़ा ग़ालिब
शब्दार्थ
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