किस्सा बूढ़ी माई का - अमन अक्षर

किस्सा बूढ़ी माई का !
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जितनी घर की लंबाई थी उतनी घर की गोलाई
और घर के दरवाज़े की थी दादा जितनी ऊंचाई
घर के पहले ही कमरे में रखी हुई इक चौपाई
जिसपे लगभग मरणासन्न सी रहती थीं बूढ़ी माई

पापा ने बतलाया हमको वो उनकी परदादी थीं
दादी ने बतलाया वो ख़ुद उनसे उमर में आधी थीं
दादा और सूरज से भी पहले उठने की आदी थीं
मम्मी ने समझाया हां वो दादा की भी दादी थीं

वे सबकी ही माई होती उनके नाम नहीं होते
इनके हिस्से में घर के भी कोई काम नहीं होते
सिर्फ़ प्रतीक्षा होती है जिसके परिणाम नहीं होते
बूढ़ी राधा के शायद कोई घनश्याम नहीं होते

कहने को पहचान थी जिनसे पाई बूढ़ी माई थीं
बूढ़ी थीं लेकिन किसकी वे माई बूढ़ी माई थीं
जीवन की सबसे कड़वी सच्चाई बूढ़ी माई थीं
इतनी भीड़ भरी दुनिया की तन्हाई बूढ़ी माई थीं

कुछ कहते हैं इसको अपनी मर्ज़ी बात नहीं करते
कुछ कहते हैं माई अभी हैं सोई बात नहीं करते
कुछ कहते हैं वो चुप हैं सो हम भी बात नहीं करते
लेकिन वो चुप हैं ऐसे कि हम ही बात नहीं करते

दाग़ धुएं दिखते होंगे छत सब काले काले
और ज़मीन पे दिखते होंगे पांव महावर वाले
उन आलों में दिखते होंगे कितने ही दीपक बाले
दरवाज़े पर रोज़ पुराना जीवन फिर दस्तक डाले

उनको उस कमरे में ही सारे अनुभव दिखते होंगे
घोर गरीबी दिखती होगी सब वैभव दिखते होंगे
बस दादा को छोड़ के सबमें ही दानव दिखते होंगे
लेकिन सपनों में अपनों के शव ही शव दिखते होंगे

उनके किस्सों ने चुप्पी के पार निकलना छोड़ दिया
जब अनुभव का बोझ बढ़ा पांवों ने चलना छोड़ दिया
इच्छाओं ने रूप बदलकर ज़िद में ढलना छोड़ दिया
इक बूढ़े बच्चे ने जैसे बच्चों सा पलना छोड़ दिया

सांसे थक जाती हैं स्वर भी कोई राग नहीं देते
दिन जीवन में बढ़ जाते हैं कुछ भी भाग नहीं देते
इच्छा मृत्यु वाले भी तन यूं ही त्याग नहीं देते
और विवशता के दशरथ को रघुवर आग नहीं देते

इक जर्जर तन कैसे घर की नयी धुनों पर इठलाता
ईंधन में बदले भोजन का स्वाद भला कैसे अाता
शेष बचा कोई तो स्वर बात अगर ये कह पाता
कम से कम मृत्यु से पहले मृत तो न समझा जाता

रोज़ नए बदलावों में हम रीत बड़ी खो देते हैं
जो सबसे अच्छी होती है चीज़ वही खो देते हैं
धूप के ऐसे होते हैं कि छांव घनी खो देते हैं
दिन तो हम कमा लाते हैं एक सदी खो देते हैं

- अमन अक्षर -

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