मधुयामिनी - डॉ. कुमार विश्‍वास

क्या अजब रात थी, क्या गज़ब रात थी 
दंश सहते रहे, मुस्कुराते रहे 
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत 
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे

मन मे अपराध की, एक शंका लिए 
कुछ क्रियाये हमें जब हवन सी लगीं
एक दूजे की साँसों मैं घुलती हुई 
बोलियाँ भी हमें, जब भजन सी लगीं 
कोई भी बात हमने न की रात-भर
प्यार की धुन कोई गुनगुनाते रहे 
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत 
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे

पूर्णिमा की अनघ चांदनी सा बदन 
मेरे आगोश मे यूं पिघलता रहा 
चूड़ियों से भरे हाथ लिपटे रहे 
सुर्ख होठों से झरना सा झरता रहा
इक नशा सा अजब छा गया था की हम 
खुद को खोते रहे तुमको पाते रहे 
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत 
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे

आहटों से बहुत दूर पीपल तले
वेग के व्याकरण पायलों ने गढ़े
साम-गीतों की आरोह - अवरोह में
मौन के चुम्बनी- सूक्त हमने पढ़े 
सौंपकर उन अंधेरों को सब प्रश्न हम 
इक अनोखी दीवाली मनाते रहे 
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत 
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे||

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डॉ. कुमार विश्‍वास

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