मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य

||जय श्री राम||
||ॐ नमः शिवाय||


बिनु सतसंग बिबेक न होई। शंभु कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥

भावार्थ: सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है।

सत्संग के बिना मनुष्य का विवेक जाग्रत नहीं होता और सत्संग भोलेनाथ महादेव की कृपा के बिना नहीं मिलता, संतों की संगति आनंद और कल्याण का मुख्य मार्ग है, संतों की संगति ही परम-सिद्धि का फल है और सभी साधन तो फूल के समान है, भगवान की कृपा निष्काम भाव से कर्तव्य समझ कर कर्म करने से प्राप्त होती है, इसलिये मनुष्य को संसार में भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिये ही कर्म करना चाहिये।

मनुष्य का संसार में विश्वास पतन का कारण होता है, और ईश्वर में विश्वास शाश्वत-सुख और परम शान्ति का कारण होता है, हम किसी का कहना मानें यह हमारे वश की बात है, कोई हमारा कहना मानें यह हमारे वश की बात नहीं होती, इसी प्रकार किसी को सुख देना हमारे हाथ में होता है परन्तु किसी से सुख पाना हमारे हाथ में नहीं होता है।

जो हमारे हाथ की बात है उसे करना ही स्वयं का उद्धार का कारण है और जो हमारे हाथ की बात नहीं है उसे करना स्वयं के पतन का कारण है, यदि हमें परमात्मा की तरफ चलना है तो हमें सांसारिक सुख अच्छे नहीं लगने चाहिये, जब हम पिछले कदम को छोड़ते हैं तभी हम आगे चल पाते हैं, जैसे-जैसे हम पिछले कदमों को छोड़ते जाते हैं उतने ही आगे बढ़ते चले जाते हैं।

इस प्रकार से आगे बढ़ते रहने से एक दिन मंज़िल पर पहुँच ही जायेंगे, यदि हम पिछले कदम को छोड़ेंगे नहीं तो आगे नही बढ़ सकते, इसी प्रकार हम सांसारिक सुख को छोड़ने की इच्छा करेंगे तभी परमात्मा का आनन्द प्राप्त कर पायेंगे, दो नावों में सवार होकर नहीं चला जा सकता है, एक संसार रूपी भौतिक नाव है तो दूसरी परमात्मा रूपी आध्यात्मिक नाव है।

जब तक संसार रूपी नाव से नहीं उतरोगे नहीं तब तक परमात्मा रूपी नाव पर सवार कैसे हो सकते हैं? जब संसार के लोग हमारा आदर करते है तो हमें समझना चाहिये कि हमारे ऊपर भगवान् की कृपा है, वह हमारा आदर नहीं कर रहें हैं वह तो भगवान् का आदर कर रहें होते हैं, जिस प्रकार किसी पद पर आसीन व्यक्ति को कोई सलाम करता है तो वह सलाम उस व्यक्ति के लिये न होकर उस पद के लिये होता है।

हमारा आदर तो केवल भगवान् ही कर सकते है, संसार में जब तक किसी व्यक्ति का स्वार्थ नहीं होता, तब तक वह किसी का भी आदर नहीं कर सकता, आज तक का इतिहास उठाकर देख लो इस संसार से कभी कोई तृप्त नही हुआ, जो वस्तु जिसके पास अधिक है उसको उसकी उतनी ही अधिक भूख रहती है, जिसके पास धन अधिक है तो उसको और अधिक धन पाने की इच्छा होती है। 

सज्जनों! निर्धन व्यक्ति के पास रुपये नहीं है उसको पचास, सौ रुपये मिल जायेगें तो समझेगा कि बहुत मिल गया, लेकिन जो जितना धनवान व्यक्ति होता है उसकी भूख उस निर्धन व्यक्ति से अधिक होती है, संसार में हमें सुख-सम्पत्ति का त्याग नहीं करना है, परन्तु सुख-सम्पत्ति को पाने की इच्छा का त्याग करना चाहिये, यह इच्छा ही तो हमारे पतन का कारण बनती आयी है।

ज्ञान के द्वारा ही संसार का त्याग हो सकता है और सम्पूर्ण विश्वास के साथ ही परमात्मा से प्रेम हो सकता है, जिनसे भी हमारा संसारिक संबन्ध है उन सभी का हमारे ऊपर पूर्व जन्मों का कर्जा है उन सभी का कर्जा चुकाने के लिये ही तो यह शरीर मिला है, कर्जा तो हम चुकता करते हैं लेकिन साथ ही नया कर्जा हम फिर से चढ़ा लेते हैं।

जब तक हम कर्जदार रहेंगे तो मुक्त कैसे हो सकते हैं? यह तभी संभव हो सकेगा जब कि हम इस संसार से नया कर्जा नहीं लेंगे, संसार तो केवल हमसे वस्तु ही चाहता है हमें कोई नहीं चाहता, हम सभी पर मुख्य रूप से दो प्रकार का कर्जा है, एक शरीर जो प्रकृति का कर्जा है, दूसरा आत्मा जो परमात्मा का कर्जा है, इसलिये हमें संसार से किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा का त्याग कर देना चाहिये।

शरीर सहित जो कुछ भी सांसारिक वस्तु हमारे पास है उसे सहज मन-भाव से संसार को ही सोंपना देनी चाहिये, हम स्वयं आत्मा स्वरूप परमात्मा के अंश हैं इसलिये स्वयं को सहज मन से परमात्मा को सोंप चाहिये यानि भगवान् के प्रति मन से, वाणी से और कर्म से पूर्ण समर्पण कर देना चाहिये।

भाई-बहनों! यही मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है, यही मनुष्य जीवन का एक मात्र लक्ष्य है, यही मानव जीवन की परमसिद्धि है, यही वास्तविक मुक्ति है, यह मुक्ति शरीर रहते हुये ही प्राप्त होती है, इसलिये यह मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है।

जय महादेव!
ओऊम् नमः शिवाय्

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